संपादकीय

ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

मन, इच्छारहित हो जाना सर्वथा ईश्वर की उपस्थिति और उसकी कृपा समझकर आगे बढ़ते रहना सरलता है। सरलता तभी अभिव्यक्त होती है जब 'स्व' का पूर्ण रूप से लोप हो जाता है। जीवन की आवश्यकता हमारे अनुभवों पर आधारित होती है और उनको आवश्यक मानकर हम आवश्यक और अनावश्यक में फँस जाते हैं। जब हम इससे उपर उठेंगे तभी सच्ची सरलता होगी। यह हमारा आत्मविश्लेषण ही हमें सरल बनाता है। प्रत्येक स्थिति में हम स्वयं का सृजन करते हैं यह अनवतर प्रक्रिया है। स्वयं पर कार्य करना, प्रकृतिमय हो जाना अर्थात् जैसे सूर्य का उदय होना, फूल का खिलना, पक्षियों का चहचहाना यह सब प्रकृति है। जैसे-जैसे स्वयं का लोप होता जायेगा हम प्रकृतिमय होते जायेंगे।

एक संत घूमते-फिरते एक दुकान पर आए। दुकान पर अनेक छोटे-बड़े डिब्बे रखे थे। दुकान पर एक बालक बैठा था। संत ने एक डिब्बे की ओर संकेत करते हुए दुकानदार से पूछा, 'इसमें क्या है?' बालक ने कहा, 'नमक है।' संत ने फिर पूछा , 'इसके पास वाले में क्या है?' बालक ने बताया 'हल्दी।' इसी प्रकार संत प्रत्येक डिब्बे के बारे में पूछते रहे और बालक बताता रहा। अंत में संत ने अंतिम डिब्बे के बारे में पूछा। बालक ने कहा, 'उसमें भगवान हैं।' संत हैरत में आ गए, 'भगवान! भला भगवान किस वस्तु का नाम है? मैंने तो ऐसा कभी नहीं सुना है।' बालक ने बड़े ही भोलेपन से कहा, 'महात्मन! यह डिब्बा खाली है। हम खाली डिब्बे को खाली नहीं कहते, उसे भगवान कहते हैं।' सन्यासी आश्चर्य से भर उठा। अचानक उसे लगा कि जिस बात के लिए वह दर-दर भटक रहा था, वो आज इस बच्चे से समझ आ रही है। यही तो सच है, जो खाली होगा, वहीं तो भगवान होगा। पहले से भरे रहेंगे, तो भगवान को स्थान कहाँ? काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और भली-बुरी, सुख-दु:ख की बातों से जब दिल-दिमाग भरा रहेगा, तो उसमें भगवान का वास कैसे होगा? संत आनंद के साथ आगे बढ़ गए। यह सर्वथा उचित है सरल है। प्रश्न उठता है सरलता क्या है? सरल अर्थात इच्छारहित होना। जो मिल गया वो ठीक। यह नहीं कि हम चुनाव करें कि हमारी सरलता को क्या फिट बैठता है। मन, इच्छारहित हो जाना सर्वथा ईश्वर की उपस्थिति और उसकी कृपा समझकर आगे बढ़ते रहना सरलता है। सरलता तभी अभिव्यक्त होती है जब 'स्व' का पूर्ण रूप से लोप हो जाता है। जीवन की आवश्यकता हमारे अनुभवों पर आधारित होती है और उनको आवश्यक मानकर हम आवश्यक और अनावश्यक में फँस जाते हैं। जब हम इससे उपर उठेंगे तभी सच्ची सरलता होगी। यह हमारा आत्मविश्लेषण ही हमें सरल बनाता है। प्रत्येक स्थिति में हम स्वयं का सृजन करते हैं यह अनवतर प्रक्रिया है। स्वयं पर कार्य करना, प्रकृतिमय हो जाना अर्थात् जैसे सूर्य का उदय होना, फूल का खिलना, पक्षियों का चहचहाना यह सब प्रकृति है। जैसे-जैसे स्वयं का लोप होता जायेगा हम प्रकृतिमय होते जायेंगे। हम ब्रह्म को पा लेंगे ब्रह्म बाहरी रूप से गुणहीन है परंतु आंतरिक रूप से विचारों की निरंतर धारा है। यह विचार ही चेतना की जागृति है। चेतना ही सृष्टि की रचना, पालन और लयबद्धता है। ब्रह्म की चेतना समस्त प्रकृति के भीतर प्रवाहित होती है। किंतु सीमित रूप में। जब कोई जीव इस सीमा को भी पार कर ब्रह्म से एकाकार कर लेता है तब वह प्रकृति के मूल रूप को अनुभव कर सकता है। ब्रह्म किसी क्रिया से पहचाना नहीं जा सकता। अनुभव किया जा सकता है। यह अनुभव वह प्राप्त कर सकता जो अपने भीतर की सीमा को अनंत चेतना से एक रूप कर देता है। एक कहावत है- 'अधजल गगरी छलकत जाए।' आधा भरा हुआ घड़ा शब्द करता है। पूर्ण घड़ा शब्द नहीं करता। उसी प्रकार अज्ञानी थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त करने पर अपने आपको संसार का महाज्ञानी मानने लगता है। किंतु एक ज्ञानी व्यक्ति संपूर्ण ज्ञान भी प्राप्त कर लेगा, तब भी अपने आपको अज्ञानी ही मानेगा। जो व्यक्ति विद्वान तथा सज्जन होते हैं, उनकी भाषा और व्यवहार में कभी अहंकार नहीं झलकता। उनकी विनम्रता ही उनकी पहचान होती है। गुणविहीन मूर्ख व्यक्ति ही अहंकार करते हैं। यदि आप विकास का आसमान छूना चाहते हो, सफलता के शिखर पर स्थापित होना चाहते हो तो आपको सरलता रूपी शस्त्र को धारण करना होगा। सरलता वह संजीवनी बूटी है, जिससे आपका जीवन अमरता का आनंद प्राप्त कर सकता है। याद रखें फलदार वृक्ष सदा झुका हुआ रहता है, वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति झुका हुआ रहता है। सूखा, काष्ठ और मूर्ख मनुष्य टूट जाता है पर झुकता नहीं है। हमें फलदार वृक्ष बनकर समाज और राष्ट्र के लिए प्रत्येक तरह से उपयोगी बनना है। सरल व्यक्ति ही समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी बन सकता है। विनम्रता एक आध्यात्मिक गुण है, जिससे व्यक्ति अपने शरीर ही नहीं, आत्मा को भी प्र्रत्येक प्रकार से सुरक्षित रखता है। स्वयं को प्रकृतिमय करने हेतु परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी ने भावातीत ध्यान-योग की पद्धति श्रेष्ठ बताया है। प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या 15 से 20 मिनट भावातीत ध्यान का नियमित अभ्यास आप प्रकृति के मूल रूप एवं ब्रह्म का अनुभव कर सकते हैं जो आपको आनंदित करेगा क्योंकि जीवन आनंद है।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।