संपादकीय

ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए आपको यथार्थवादी बनना होगा। स्वयं आप ओरिजनल हैं अत: किसी की कॉपी बनने का प्रयास न करें। उचित आचरण को धर्म मानकर धारण करने का प्रयास करें क्योंकि स्वयं होना ही आनंद है। यही हमारी सच्ची शक्ति है, धन है, बुद्धि है, सुन्दरता है, यौवनता है। जब आप अकेले खडेÞ होंगे या समूह में होंगे तब भी आप मणि के समान स्वयं प्रकाशित होंगे। यदि आप स्वयं को श्रेष्ठ भक्त बनाने के लिये प्रयासरत हैं तो स्वयं के कौशल को विचारिये। एक यात्रा है, अपनी यात्रा में सृजन की आवश्यकता की आकांक्षा रखते हुए उत्सव की तैयारी करें।

हमारी धार्मिक परंपराओं को हमारी संस्कृति में, जीवन को आनंद से परिपूर्ण करने के लिए उत्सवों का समावेश किया है। उत्सव हमारे आंतरिक और बाह्य जीवन को मंगलमय बनाते हैं, किंतु प्रत्येक उत्सव से स्वयं को सम्बद्ध करे बिना हम मात्र बाहरी रूप से ही उत्सव मनाते आ रहे हैं। कभी हमने स्वयं से प्रश्न किया कि दीपावली को क्यों हमारी संस्कृति में सम्मिलित किया गया क्योंकि मर्यादा पुरुषोत्तम राजा राम ने दुष्ट एवं आतातायी रावण का वध कर सम्पूर्ण विश्व को उसके अत्याचारों एवं कष्टों से मुक्ति दिला कर सम्पूर्ण विश्व में आनंद व उत्साह के सूर्य की पुन: स्थापना की थी। किंतु प्रत्येक वर्ष उत्सव क्यों मनाना? वह चाहते थे कि हम स्वयं रावण के वध और आनंद के उत्सव को धारण करें। परिवर्तन ही जीवन है प्रतिपल हम यह अनुभव करते हैं कि परिवर्तन हो रहा किंतु इसकी अनुभूति बाह्य रूप से ही हम अनुभव करते हैं। आंतरिक रूप से भी हममें होने वाले परिवर्तनों पर भी दृष्टि रखने की आवश्यकता है। क्या हम प्रतिवर्ष अपने अन्दर के रावण को खोज कर अपने हृदय में राम को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं या हम मात्र बाह्य रूप से अपने शरीर एवं भौतिक वस्तुओं की स्वच्छता को ही उत्सव मान रहे हैं। इसलिए हमारे मन में चिंता, भय, आत्मग्लानि व संकोच जैसी सभी नकारात्मक भावनाओं का प्रभाव है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मत्सर जैसे नकारात्मक आचरण को पहचान कर उनसे मुक्ति के प्रयास करना, स्वयं के जीवन को सुशोभित करने वाले प्रेम, करुणा व सत्य जैसे अति सुंदर भावों को जब चाहे, अपने में मन में जगा लेने की कला ही 'उत्सव' है। परमपूज्य महर्षि महेश योगी सदैव कहते थे कि- 'ईश्वर की सृष्टि में कुछ भी अमंगल नहीं होता, जहाँ जो भी होता है, मंगल होता है। यहाँ जन्म भी मंगल होता है, तो मृत्यु भी मंगल है। आवश्यकता है हमें अपनी दृष्टि को परिवर्तित करने की। हम शरीर नहीं हम आत्मा हैं और आत्मा को न जन्म छूता है और न मृत्यु। आत्मा तो प्रत्येक पल आनंद की अवस्था में रहती है। मृत्यु तो शरीर की होती है और हम शरीर नहीं। यदि हम शरीर होते तो, हमारे परिजन हमारे शरीर को न जलाते क्योंकि हमारा शरीर तो मरने के बाद भी शरीर ही रहता है। जीवन के इसी रहस्य को जानकर हम अमर हो जाते हैं जिससे अंदर से मरने का भ्रम निकल जाता है। यह मृत्यु का भय ही है जो हम सभी को दु:खी करता रहता है। जैसे ही हम इस भय से मुक्त हो जाते हैं, हम उसी क्षण आनंद में आ जाते हैं। जीवन आनंद है, एक उत्सव है, एक यात्रा है। एक प्रामाणिक अभियान है परिस्थितियों पर प्रभुत्व पाने का...स्वयं की दिव्यता को पहचान लेने का जीवन को उत्सव बना लेने का। हमें स्वयं को ही उत्सव बना लेना है। हम सदैव बुद्धिमान, धनी, शक्तिशाली, युवा एवं सुंदर रहना चाहते हैं किंतु आवश्यकता है कि आप जैसे भी हैं, जो भी है उसके प्रति सच्चे रहिये। स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए आपको यथार्थवादी बनना होगा। स्वयं आप ओरिजनल हैं अत: किसी की कॉपी बनने का प्रयास न करें। उचित आचरण को धर्म मानकर धारण करने का प्रयास करें क्योंकि स्वयं होना ही आनंद है। यही हमारी सच्ची शक्ति है, धन है, बुद्धि है, सुन्दरता है, यौवनता है। जब आप अकेले खडेÞ होंगे या समूह में होंगे तब भी आप मणि के समान स्वयं प्रकाशित होंगे। यदि आप स्वयं को श्रेष्ठ भक्त बनाने के लिये प्रयासरत हैं तो स्वयं के कौशल को विचारिये। एक यात्रा है, अपनी यात्रा में सृजन की आवश्यकता की आकांक्षा रखते हुए उत्सव की तैयारी करें। आप स्वयं को श्रेष्ठ भक्त बनाने के लिए प्रयासरत हैं तो इसके लिए आप को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है एवं अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने के लिए प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या के समय 15 से 20 मिनट का भावातीत ध्यान आपको आनंद प्राप्त होगा। संसारिक इच्छाओं से दूर करने में सहायता करेगा एवं आपको श्रेष्ठ भक्त बनने में सहयोग करेगा। एवं जीवन को आनंदित करेगा, क्योंकि जीवन आनंद है।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।