संपादकीय

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ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

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अतः हमें सबसे अधिक प्रयास हमारी चेतना को शुद्ध करने में करना चाहिए । जिसका सरलतम उपाय है भावातीत ध्यान का प्रतिदिन नियमित प्रातः एवं संध्या का अभ्यास। वह हमारी प्रकृति का ईश्‍वरीय प्रकृति से संबंध स्थापित करता है, जो हमारे जीवन को आनंदित करती है । जब हम स्वयं का संबंध प्रकृति से साध लेते हैं, तो जो भी हमारे लिये उपयुक्त होगा, वह स्थान प्रकृति हमें बिना प्रयास के प्रदान कर देती है|


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प्रकृति से संबंध

वर्तमान में अत्यधिक अशांति का अनुभव रहा है, ऐसी परिस्थिति में मानसिक शांति अतिआवश्यक है क्योंकि हम सभी समाज में रहते हैं और हम समाज की इकाई हैं यदि हम स्वयं भीतर से शांत रहेंगे, तो हम अपने चारों ओर शांति स्थापित करने का प्रयास करेंगे और यदि हम भीतर से शांत नहीं होंगे तो हम भी अशांति को बढ़ायेंगे जैसे कि वर्तमान समय में हो रहा है। तो प्रश्न उठता है इसका समाधान क्या है? परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी, सदैव आत्मिक शांति के लिए समस्त संसार को प्रेरित और प्रोत्साहित करते रहे हैं। अत: उन्होंने 'मानसिक शांति' को विशेष महत्व दिया। महर्षि जी कहते थे- शांति और संतुलन जीवन के आधार हैं। मानसिक अशांति की सर्वोत्तम चिकित्सा है, शांति को विकसित करने की कला जिसके सम्बंध में महर्षि जी ने 'साइंस ऑफ बीइंग एण्ड आर्ट ऑफ लिविंग' नामक पुस्तक में सूक्ष्मता से सरल व्याख्या की है। यही विधान सरलतम एवं आनंदित जीवन जीने की कला है। जो व्यक्ति स्वभाव से ही शांत हो, वह किन्हीं भी परिस्थितियों में अपना विवेक नहीं त्यागता। वह सदैव सत्य को, भावनाओं और इच्छाजनित धारणाओं को संतुलित रखने का सामर्थ्य रखता है। अनुचित व्यवहार, बिना परिश्रम से प्राप्त संपत्ति, असंभावित योजनाएँ प्रस्तुत करने वाले स्वार्थी, ठगी, व्यक्तियों की मीठी वाणी भी उनको अपने पथ से भ्रमित नहीं कर सकती हैं। जब मानसिक शांति और संतुलन को वह समझता है, तो वह अपने मन-मस्तिष्क को क्रोध अथवा भय से विषैला नहीं करता, जो रक्त संचार के प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। यह सार्वभौमिक सत्य है। जैसे हमारी मान्यताएँ हैं कि गर्भवती स्त्री को सुखपूर्वक एवं आनंदित रखना चाहिये, उसे उचित पोषण युक्त आहार उपलब्ध कराना चाहिये जिससे उसके गर्भ में आकार ले रही संतान भी सुखी, आनंदित एवं स्वस्थ जन्मे। हमारे मन के ध्यान के मंदिर में जहाँ अन्तर्ज्ञान का प्रकाश प्रज्ज्वलित हो रहा है वहाँ चंचलता, चपलता का कोई स्थान नहीं होता। हम भोले भाव से भावातीत ध्यान का 15 से 20 मिनट प्रात: एवं संध्या को नियमित अभ्यास करते हैं तो हमारी चेतना सामर्थ्यवान होती जाती है। जो हमारे मन, मस्तिष्क और शरीर में एक अद्भुत संतुलन स्थापित करती है जिससे कि हमारी इंद्रियाँ सकारात्मक हो जाती हैं। हमें आनंद का अनुभव होने लगता है, मन विचलित, क्रोधित एवं लालची नहीं होता क्योंकि हमारी सांसारिक, शारीरिक, मानसिक आदि समस्त गतिविधियों का संचालन हमारी शुद्ध चेतना से होता है। अत: हमें सबसे अधिक प्रयास हमारी चेतना को शुद्ध करने में करना चाहिए। जिसका सरलतम उपाय है भावातीत ध्यान का प्रतिदिन नियमित प्रात: एवं संध्या का अभ्यास। वह हमारी प्रकृति का ईश्वरीय प्रकृति से संबंध स्थापित करता है, जो हमारे जीवन को आनंदित करती है। जब हम स्वयं का संबंध प्रकृति से साध लेते हैं, तो जो भी हमारे लिये उपयुक्त होगा, वह स्थान प्रकृति हमें बिना प्रयास के प्रदान कर देती है। कवि श्रेष्ठ तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में कहा है कि "जो इच्छा करिहों मन माही, प्रभु प्रताप कछु दुर्लभ नाहीं" आवश्यकता तो मात्र स्वयं को समर्पित करने की है वह भी निष्कपट भोले भाव से जिस प्रकार श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन से स्वयं को मन, वचन और कर्म से करुणानिधान वासुदेव श्रीकृष्ण को समर्पित किया था ठीक उसी प्रकार मन मन्दिर में परमपिता परमेश्वर को स्थापित कर उसकी कृपा के प्रति प्रत्येक क्षण कृतज्ञता ज्ञापित करते रहे और सब कुछ सच्चिदानंद के सुपुर्द कर अपने को आनंद की गंगा में विसर्जित कर। आनंदित जीवन का आनंद लीजिए।



।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।