आवरण कथा
‘ कुम्भ पर्व नासिक में गोदावरी नदी के किनारे, हरिद्वार में गंगा नदी के किनारे, उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे और प्रयागराज में गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के किनारे आयोजित होता है। इन चार स्थानों पर कुम्भ पर्व आयोजित होने की मूल प्रेरणा अथर्ववेद की पंक्ति 'चतुरा कुम्भा: ददामि (4/37/7)' से मिली हुई प्रतीत होती है। अत: कुम्भ पर्व अत्यंत प्राचीन है। पौराणिक कथा है कि समुद्र मंथन से प्राप्त अमृतपूर्ण घट (कुम्भ) के लिए देवासुर संग्राम हुआ। संग्राम में असुरों से छीने गए अमृतपूर्ण घट को गरुण द्वारा ले जाते समय इन चार स्थानों पर इस घट से कुछ बूँदें छलकी और नदियों की जल धारा में मिल गर्इं। इसी से इन नदियों के जल धारा में पवित्रता और दैहिक, दैविक एवं भौतिक ताप निवारण की अद्भुत क्षमता आई। इनके पवित्र जल को स्पर्श एवं अवगाहन करने की लालसा से देश के कोने-कोने से श्रद्धालु कुम्भ मेले में आते हैं। ’’

नवप्रवर्तन करना मनुष्य का नैसर्गिक गुण है। इसी प्रवृत्ति से तीर्थस्थानों की खोज और उनको भव्य बनाने का प्रयास अनवरत होता रहा है। यह सामाजिक विकास प्रक्रिया का एक प्रमुख पक्ष है। पूर्वज जब गुफाओं और वनों में रहते थे उस समय से ही तीर्थस्थानों की खोज करने और उसको विकसित करने का प्रयास करते रहे हैं। इन तीर्थस्थानों का नैसर्गिक वैशिष्ट्य रहा है। यह वैशिष्ट्य भू-रचना, जल का वैशिष्ट्य या तपस्वियों की आराधना के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। ये तीर्थ बहुधा पवित्र स्थान के रूप में विकसित हुए हैं। वे धार्मिक कार्यों के साथ-साथ सामाजिक गतिविधि के भी उन्नायक रहे हैं। इन स्थानों पर पुरोहित ट्रस्टी के रूप में मंत्रोच्चारण के साथ घी, अनाज और शहद की समिधा अग्नि में आहूत करने की विधि के जानकार थे और प्राचीनकाल में यज्ञ करते थे। प्रत्येक तीर्थस्थान एक सम्पूर्ण प्रणाली है, जिनमें कई उप- प्रणालियाँ होती हैं। यहाँ शिल्पकार, वास्तुकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, गायक, नर्तक, वक्ता, रसद आपूर्तिकर्ता एवं विविध सेवा प्रदायक होते हैं। कालक्रम में तीर्थस्थानों पर पूजा स्थान बनाये गये और आराध्यों की प्रतिमा उप-प्रणालियों के अनेक अभिकर्ता बसने लगे। सम्भवत: यहीं से नगरीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। स्थानों और क्षेत्रों के विकास में पूजास्थल नाभिक के रूप में रहे हैं। 'तीर्थस्थानों के अर्थशास्त्रों' से ही नगरीय संस्कृति आरम्भ हुई, परन्तु तीर्थस्थानों का ग्रामीण क्षेत्र में अंतर्सम्बन्ध आज तक अक्षुण्ण बना है। कालक्रम में तीर्थस्थानों में नये आयाम जुड़े और निरंतर जुड़ते जा रहे हैं। अब इन स्थानों पर अधुनातन प्रौद्योगिकी और शोधों का प्रवेश सामान्य हो गया है। कल्याणकारी सरकारें, 'सर्वजन सुखाय एवं सर्वजन हिताय' के आधार पर तीर्थस्थानों के विकास में भरपूर योगदान, राजतंत्र के समय से ही करती चली आ रही है।
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