आवरण कथा
‘"गुरु-शिष्य का संबंध ऐसा ही होता है, जैसे एक संतान का अपने माता-पिता से होता है। एक शिष्य अपने गुरु की छवि होता है, किंतु यह संबंध भौतिक नहीं, आध्यात्मिक होता है। जब किसी व्यक्ति के जीवन में गुरु का प्रवेश होता है, तो उसके सोच-विचार, रहन-सहन ही नहीं, पूरा जीवन ही बदल जाता है।" जैसे पुत्र अपने पिता की छवि होता है, वैसे ही शिष्य अपने गुरु की छवि होता है। ब्रह्मवेत्ता गुरु का शिष्य अज्ञानी नहीं हो सकता है, अगर अज्ञानी है, तो जानो कि अभी वो संबंध बना नहीं है। शिष्य-गुरु की नादी-संतान होता है। शब्द से उत्पन्न संतान। जैसे जन्म देने वाले पिता के लक्षण उसके बच्चे में दिखाई देते हैं, ऐसे ही शिष्य के अंदर उसके गुरु के समस्त लक्षण होने ही चाहिए। ’’
![निर्गुण और सगुण का रहस्य गुरुदेव ने बताया निर्गुण और सगुण का रहस्य गुरुदेव ने बताया](upload/avarankatha/mahamedia-prawah1-jan20.jpg)
पूज्य महर्षि महेश योगी जी ने विश्व का
सैकड़ों बार भ्रमण किया और हजारों प्रवचन
दिए। यहाँ उनके ऐसे प्रवचन की चर्चा कर रहे
हैं, जो उन्होंने 1 मई, 1979 को स्विट्जरलैंड
के वेगिस और वेनिस शहर में दिया था। इस
प्रवचन में महर्षि जी ने निर्गुण और सगुण की
जीवन-परक व्याख्या की है। इस व्याख्या को
उन्होंने उदाहरणों से स्पष्ट किया है। अध्यात्म में
रुचि लेने वाले जिज्ञासुओं के लिए गुरु पूर्णिमा
के अवसर पर उसे जानना आवश्यक है।
महर्षि जी का मानना है कि प्राचीन ज्ञान
का महत्व इसलिए अधिक है कि उसका पूर्ण
मूल्यांकन करना संभव नहीं। उदाहरण के लिए
प्रत्येक पदार्थ की सत्ता ऊपर से सगुण और
भीतर से निर्गुण है। इसे वही व्यक्ति जान सकता
है जिसकी चेतना पूर्ण रूप से जाग्रत होती है।
यह पूर्ण चेतना क्या है? इसे सर्वप्रथम जानें-
चेतना के दो रूप हैं- शांत चेतना और
क्रियाशील चेतना। शांत चेतना निर्गुण स्वरूप है
और क्रियाशील चेतना सगुण रूप है। जब हम
चेतना के इस स्वरूप को भली-भाँति जान लेते
हैं, तो पदार्थ का भी पूर्ण रूप से मूल्यांकन कर
सकते हैं। पूर्ण चेतना के बंधन का अर्थ है,
देशकाल की सीमा में रहकर क्रियाशील रहना।
मोक्ष का अर्थ है सीमातीत होकर शांत चित्त
होना।
इसे ऐसा भी कह सकते हैं। सगुण चेतना
वह है जो क्रियाशील है और निर्गुण चेतना वह
है जो शांत है। अत: चेतना पूर्ण तभी कही
जाएगी जिसमें सगुण और निर्गुण दोनों सत्ताएँ जैसे जल के बगैर मछली नहीं रह
सकती। माता के बिना बालक नहीं रह सकता।
भोजन के बिना अन्नमयी शरीर नहीं रह
सकता। प्राण के बिना यह शरीर नहीं चल
सकता। ऐसे ही शिष्य का गुरु के बिना चलना
कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है। गुरु का
जीवन में आना मात्र इतना ही नहीं है कि आप
उनको देखते हो। आप उनको सुनते हो। आप
उनको मिलते हो। आप उनको कभी-कभी कुछ
धन, कुछ वस्तुएँ अर्पित कर देते हो। गुरु का
मिलना तब होता है, जब गुरु का ज्ञान आपका
ज्ञान हो जाए। गुरु का वैराग्य तुम्हारा वैराग्य हो
जाए। अगर ज्ञान मात्र कानों तक रह गया और
मन में भाव कभी अधिक आ गया गुरु के लिए,
कभी कम हो गया तो भी बात अधूरी है।
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