आवरण कथा
‘ बच्चा जब जन्म लेता है तो उसे मात्र अपनी भूख और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये, इतनी ही समझ होती है। वह मात्र 'अपने लिये जीने वाला जीव' होता है। कुटुंब उसे सामाजिक बनाता है। संस्कारित कर ऐसे मात्र अपने हित की सोचने वाले अर्भक को, मात्र अपने लिये जीने वाले उस जीव को 'अपनों के लिये जीने वाला घर का मुखिया' बनाता है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर, परिश्रमपूर्वक परिवार व्यवस्था का निर्माण किया था। मात्र व्यवस्था ही निर्माण नहीं की अपितु उसे पूर्णत्व की स्थिति तक ले गये। उस व्यवस्था में ही ऐसे घटक विकसित किये जो उस व्यवस्था को बनाए भी रखते थे और सुदृढ़ भी बनाते थे। इसीलिये धार्मिक कुटुंब व्यवस्था कालजयी बनीं। ’’

हते हैं कि विश्व के प्रारंभ में
मात्र देव ही था। बताते हैं कि
उसमें बहुत बनने की इच्छा
उत्पन्न हुई जैसा, 'एकोऽहं बहुस्याम'।
इसीलिए उसने अपने जैसों का निर्माण करने के
लिए कुटुंब बनाया।
यह मात्र कथा है या वास्तव, इसकी चर्चा
में न जाते हुए, कोई एक जीव ईश्वर बनने के
लिए अपने जैसे अन्य जीवों के साथ रहते हुए,
मैं नामक छोटेपन को पार करते हुए, हम बनने
के लिए साकार की हुई व्यवस्था ही कुटुंब है।
व्यक्ति के शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा के
विकासार्थ ही अपने ऋषियों ने निर्माण किया
हुआ, इस दृढ़ संबंध को हम मानेंगे।
कुटुंब अर्थात् व्यक्तियों का एक समूह,
घटक है। इन सबके जन्म-एकत्व आदि सब
रक्त संबंधों से जुड़ा हुआ होता है। एक ही माता
के बच्चे एक ही स्थान पर मिलकर रहें; अथवा
पति-पत्नी-बच्चे आपसी प्यार-दुलार के साथ
सबके सुख-दु:खों को बाँट लेते हुए जीते रहने
वाला घटक ही कुटुंब कहलाता है। यह एक
संस्कार, सुरक्षा, पोषण प्रदान करने वाला केंद्र
है। साधारणत:, कुटुंब के न्यूनतम लोग यानी
माता-पिता तथा बच्चे हो सकते हैं। किन्तु यह
अगली पीढ़ियों के आश्रयस्थान के रूप में भी
माता-पिता, सगे-संबंधी, बच्चे, पोते-पोतियाँ
आदि सबको अपने में समा ले सकता है। कुटुंब
अनेक पीढ़ियों से अथवा एक ही पीढ़ी से युक्त
हो सकता है।
जहाँ जीव है, वहाँ सामूहिक जीवन
आवश्यक होता है। हम पशु-पक्षियों, पेड़-
पौधों, कृमि-कीटों में समूह जीवन,
परस्परावलंबन देखते हैं। आहार, आपसी
सुरक्षा, पोषण, वंश निरंतरता के लिए परस्पर
पूरक रूप में जीने वाली एक संकुलीय वृत्ति भी
देखते हैं। जैसे-जैसे यह विकसित होते जाती
है, कुटुंब की आवश्यकता अनुभव में आने
लगती है।
मनुष्य के लिए तो आहार, निद्रा, भय
आदि को पार करते हुए, उत्तम संस्कारों की
आवश्यकता होती है। स्वयं जीकर, शेष अन्यों
को जिलाने, दूसरों के लिए परिश्रम, त्याग करने
की दृष्टि एवं शक्ति भी आवश्यक लगने लगती
है। एकाकी रहने वाले को यह अवसर नहीं
मिल पाता। अत: किसी भी व्यक्ति को उत्तमता
परिवार का ध्यान आते ही एक इत्मीनान
और सुरक्षा का भाव आए, तो जीवन की
आसानियों का अंदाज भी नहीं लगाया जा
सकता है।
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