महर्षि प्रवाह

ब्रह्मचारी गिरीश जी

महर्षि जी ने वेद, योग और ध्यान साधना के प्रति जन सामान्य में बिखरी भ्रान्तियों का समाधान कर उनको दूर किया। वैदिक वांङ्गमय के 40 क्षेत्रों- ऋग्वेद, समावेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, कर्म मीमांसा, योग, आयुर्वेद, गंधर्ववेद, धनुर्वेद, स्थापत्य वेद, काश्यप संहिता, भेल संहिता, हारीत संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, शार्ङ्गधर संहिता, माधव निदान संहिता, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, स्मृति, पुराण, इतिहास, ऋग्वेद प्रतिशाख्य, शुक्ल यजुर्वेद प्रातिशाख्य, अथर्ववेद प्रातिशाख्य, सामवेद प्रातिशाख्य (पुष्प सूत्रम्), कृष्ण यजुर्वेद प्रातिशाख्य (तैत्तिरीय), अथर्ववेद प्रातिशाख्य (चतुरध्यायी) को एकत्र किया, उन्हें सुगठित कर व्यवस्थित स्वरूप दिया और वेद के अपौरुषेय होने की विस्तृत व्याख्या की।


गुरुदेव (स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती श्री
महाराज, तत्कालीन शंकराचार्य, ज्योतिष्पीठ,
बद्रिकाश्रम, हिलामयल) की कृपा से ज्ञानयुग का
समागम, ज्ञानयुग के तृतीय वर्ष (1977) का
आरंभ हुआ है। सब लोगों के लिये, समस्त
मानव जाति के लिये परम सौभाग्य का समय है।
ज्ञानयुग का आधार है विशुद्ध ज्ञान। विशुद्ध ज्ञान
का क्षेत्र है शुद्ध चेतना। विशुद्ध ज्ञान का स्वरूप
हैं वेद। त्रिकालबाधित नित्य अपौरूषेय सनातन
वेद शुद्ध ज्ञान का स्वरूप है और वेदवति प्रतिभा,
वेदवान प्रज्ञा, वेदवान चेतना, ज्ञानयुग के मनुष्य
की चेतना है।
जब हम इस ज्ञान के तृतीय वर्ष का
आव्हान करते हैं तो उसका आधार है कि इस
पीढ़ी की मानव चेतना में वेद चेतना-वैदिक
चेतना-वेद संबंधी चेतना-शुद्ध चेतना का उदय
होना। यह देखें कि जिस काल से इस ज्ञान का
काल प्रार्दुभूत हो रहा है, जिस युग से यह ज्ञानयुग
उभर रहा है, वह अज्ञान युग ही तो था जिसमें
क्लेश और हर प्रकार की गलत बातें, दु:ख
अशाँति का बोलबाला था। लोगों ने समझ लिया
था कि जीवन संघर्ष का नाम है, संघर्ष ही को
जीवन कहते हैं। ज्ञान के युग में क्या होगा?
मनुष्य की आत्मा ज्ञान स्वरूप है।
प्रज्ञानम ब्रह्म।
यह जो मनुष्य की प्रज्ञा है, वो ब्रह्म है, वो महान
है। अनंत, अखंड, सच्चिदानंद स्वरूप है यह
मनुष्य की प्रज्ञा। यह आनंदमयीता, यह
ज्ञानस्वरूपता जिसका स्वाभाव है आनंदमयिता
और नित्य है, शाश्वत् है, सनातन है। भगवान ने
गीता में कहा ''अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न
हन्यते हन्यमाने शरीरे'' कि आत्मा अजर अमर
अविनाशी है, मानव चेतना अजर अमर
अविनाशी आनंद रूप है। ऐसी आनंदरूप चेतना
का प्रस्फुटन, ज्ञानयुग का स्वभाविक गुण यह है
कि चेतना दु:खी न रहे, मनुष्य की चेतना में दु:ख
न हो, सुख अपार हो। उपनिषद् कहते है
''आनन्दाद्धयेव खल्विमानी भूतानी जायन्ते''।
आनन्द से यह सारा विश्व ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ।
उसी आनंद स्वरूप चेतना से सच्चिदानंद स्वरूप
ब्रह्म से, यह सारे विश्व ब्रह्मांड का उद्भव है,
इसका प्रकाश हुआ है।
''आनन्दाद्धयेव खल्विमानी भूतानी
जायन्ते आनन्देन जातानी जीवन्ति''। उसी आनंद
की सत्ता से यह विश्व स्थित है। आनंद की सत्ता
से जगत का प्रदुर्भाव हुआ, आनंद की सता से
जगत स्थिर है यह सब विराट संकुचित होकर
प्रलय में जाता है तो वो विशुद्ध आनंद सत्ता में
समाता है। उपनिषद् कहते हैं ''सैषा भार्गवी
वारूणी विद्या'' यह भ्रगु ने अपने पुत्र वारूण्य को
दिया था। यह कहाँ है? इस विज्ञा का क्षेत्र कहाँ
है? ''परमे व्योमन्प्रतिष्ठिता।'' ये विद्या परम
आकाश में प्रतिष्ठित है, परमेव्योमन-परम
आकाश में प्रतिष्ठित है। अब यह परम आकाश
कहां है देखें उनको। परम आकाश अर्थात्
आकाश के परे के क्षेत्र में यह विद्या है। जीवन
आनन्द रूप है। प्रवाह है और आनंद सागर में ही
इसकी पूर्णाहुति होती है।
Subscribe Now