संपादकीय

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ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

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हमारे जीने की शैली ही जीवन में शांति एवं अशांति का निर्धारण करती है। हम अकारण अपने स्वभाव और व्यवहार से जीवन को अशांत और क्लेशमय बना देते हैं। जीवन में छोटी-छोटी बातें जिनको प्रेमपूर्ण व्यवहार से सुलझाया जा सकता है उन्हें अहम के कारण से हम और अधिक उलझा देते हैं। सहज रहकर ही जीवन को प्रसन्नता और आनन्द से जिया जा सकता है।


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स्वयं को झुका दें

महावीर स्वामी के पास प्रतिदिन हजारों लोग उनके दर्शन करने आया करते थे। इन्हीं श्रद्धालुओं में एक राजा भी था, जो प्रतिदिन महावीर जी के दर्शन करने आता था किंतु राजा को अपने राजसी वैभव का बहुत अहंकार था। वह जब भी वहाँ आता तो अपने घमंड का प्रदर्शन करता। वह अपने साथ धन, रत्न-जवाहरात आदि लेकर आता था। राजा के इस वैभव प्रदर्शन को देखकर महावीर स्वामी उससे यह कहते कि राजन इन्हें गिरा दो। महावीर जी के वचन सुनकर राजा उन रत्नों को वहीं गिरा देता। अगले दिन फिर वही होता। यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा। राजा प्रतिदिन महावीर जी के लिए रत्न-जवाहरात लेकर आता और स्वामी जी उससे हर बार के समान उन्हें गिरा देने की बात कहते। राजा भी उनकी बात सुनकर सभी रत्न और कीमती वस्तुएँ वहीं गिरा देता। ऐसा अनेक दिनों तक चलता रहा तो एक दिन राजा को बहुत क्रोध आया कि वह तो प्रेम और श्रद्धा से महावीर जी के लिए रत्न और कीमती वस्तुएँ लेकर आता है और महावीर जी उसे स्वीकारने के बजाय हर बार गिरा देने की बात कहते हैं। राजा को स्वामी जी की यह बात बुरी लगने लगी थी। इसके बाद भी काफी दिनों तक ऐसे ही चलता रहा। राजा सोचता कि एक-न- एक दिन महावीर जी उसके दिए उपहारों को अवश्य स्वीकार करेंगे। एक दिन राजा ने अपने मंत्री से इस घटना का वर्णन किया, तो मंत्री ने उन्हें महावीर जी के पास मात्र फूल भेंट देने का परामर्श दिया। मंत्री की बात मानकर राजा इस बार भेंट में देने के लिए फूल लेकर गया। किंतु महावीर जी ने हर बार के समान राजा से फूल को भी गिरा देने के लिए कहा। यह देखकर राजा निराश होकर लौट आया और सारी बात मंत्री को बताई। मंत्री ने कुछ सोचते हुए राजा से कहा कि इस बार आप महावीर जी के पास खाली हाथ जाएँ। अगले दिन राजा महावीर जी के पास खाली हाथ गया। राजा ने उनकी ओर देखते हुए कहा कि आज तो मैं आपके पास खाली हाथ आया हूँ। आज आप मुझसे क्या गिराने को कहेंगे? महावीर जी ने मुस्कुराते हुए कहा, 'राजन अब स्वयं को झुका दो।' यह सुनते ही राजा को ज्ञान हो गया कि महावीर जी उससे उसका अहंकार गिराने की बात कह रहे हैं। राजा महावीर स्वामी के सामने नतमस्तक हो गया और उनसे क्षमा मांगते हुए अपना अहंकार छोड़ने का प्रण किया। इतना करते ही राजा असीम शांति का अनुभव करने लगा। हमारे जीने की शैली ही जीवन में शांति एवं अशांति का निर्धारण करती है। हम अकारण अपने स्वभाव और व्यवहार से जीवन को अशांत और क्लेशमय बना देते हैं। जीवन में छोटी-छोटी बातें जिनको प्रेमपूर्ण व्यवहार से सुलझाया जा सकता है उन्हें अहम के कारण से हम और अधिक उलझा देते हैं। सहज रहकर ही जीवन को प्रसन्नता और आनन्द से जिया जा सकता है। सहजता और धैर्य के आश्रय में जिया गया जीवन ही सुखी और सबका प्रिय बन जाता है। यदि जीवन में सहजता एवं धैर्य नाम का सद्गुण नहीं है तो हमारा प्रत्येक पल कष्टमय ही व्यतीत होने वाला है। हम स्थिति- परिस्थिति को नहीं बदल सकते हैं किंतु अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया और अपने स्वभाव को अवश्य बदल सकते हैं। जिस दिन हमारा स्वभाव बदल जाता है उसी दिन से हमारा जीवन बदलना भी प्रारंभ हो जाता है। हमें अपने स्वभाव से अभिमान का त्याग करना होगा। जब अभिमान का त्याग होगा तभी सहजता का जीवन में विस्तार होगा। अभिमान के पोषण में हम सहजता, सरलता एवं प्रेम का परित्याग कर देते हैं जो हमारे जीवन को बोझिल बना देता है। भक्त जा स्वयं को भूल जाते हैं तभी वह भगवान को प्राप्त कर पाते हैं। वह भगवान ही हमारे हृदय में वास करते हैं एवं हमारे जीवन को आनंद से भर देते हैं।



।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।